Thursday, January 26, 2012

गांधीवाद से थप्पड़ पर क्यों उतर आये अन्ना?

-राजेश त्रिपाठी

अन्ना हजारे की भ्रष्टाचार के खिलाफ छेड़ी गयी मुहिम का पूरे देश ने जी जान से साथ दिया था। लोगों को लगा था जैसे भ्रष्टाचार के बढ़ते घटाटोप से उन्हें मुक्त कराने कोई मसीहा आ गया है। उनकी बातें लोगों को इसलिए भी भायीं क्योंकि उन्होंने अपने आंदोलन के लिए महात्मा गांधी का अहिंसा का मार्ग चुना था। अन्ना की एक पुकार पर देश के युवा, वृद्ध सब जैसे उनकी राह पर चल पढ़े। दिल्ली के रामलीला मैदान में भ्रष्टाचार के खिलाफ जैसे पूरा देश उमड़ पड़ा लेकिन इस आंदोलन का जो हस्र  होना था, वही हुआ। अन्ना को पता नहीं क्यों इस बात का अहसास नहीं हुआ कि राजनेता इतने घाघ और चतुर होते हैं कि वे बड़े-बड़ों को आसानी से सलटा देते हैं। उन्होंने अन्ना को भी एक तरह से निपटा दिया। उन्हें दिलासा दिया की वे उनका ही जन लोकपाल लायेंगे और उसके बात उन्हें धता बता अपने मन मुआफिक विधेयक पेश कर दिया। उनके आंदोलन के समर्थन में अनेक दलों के नेता उनके मंच पर बैठे और उन्हें दिलासा दिया कि वे उनके जन लोकपाल के साथ  हैं लेकिन संसद में उन्होंने ही उसका जम कर विरोध किया। ऐसे में जन लोकपाल का वही हस्र हुआ जो होना था। इससे लगता है कि अन्ना का धीरज टूट गया तभी तो वे गांधीवादी तरीके की बात छोड़ थप्पड़ मारने की बात पर उतर आये हैं। उन्होंने कहा है कि भ्रष्टाचारियों से निपटने का एक ही तरीका है कि उन्हें थप्पड़ मारो। कहते हैं कि अन्ना ने यह टिप्पणी फिल्म ‘गली गली में चोर है’ देखने के बाद की। इस फिल्म में एक दृश्य है जब आम आदमी की भूमिका निभा रहा कलाकार एक अधिकारी के थप्पड़ मारता है और कहता है-‘यह है सिस्टम के गाल पर आम आदमी का थप्पड़।’ कहते हैं कि अन्ना को यह देख कर उत्साह आया और उन्होंने कहा कि जब किसी व्यक्ति भ्रष्टाचार सहने की शक्ति खत्म हो जाती है तो उसके पास थप्पड़ के अलावा और कोई रास्ता ही नहीं बचता। अगर भ्रष्टाचारी को थप्पड़ जमा दिया जाये तो उसका दिमाग सही हो जायेगा। बस अन्ना के इस आह्वान से तूफान खड़ा हो गया। इस गांधीवादी नेता के रुख में बदलाव से वे सारे दल उनके खिलाफ मुखर हो गये जो कभी उनकी मुहिम के पक्ष में खड़े थे। सबको गांधीवादी समाजसेवी का यह बदलाव अखर गया। कांग्रेसी नेता दिग्विजय सिंह अन्ना और उनकी टीम पर शब्दों को तीर छोड़ने का कोई मौका नहीं खोना चाहते। उन्हें अच्छा मौका मिल गया। उन्होंने कहा-उनका हिंसक बयान संघ की उनकी संगत का नतीजा है। इस बयान के बाद मेरे मन में उनके प्रति जो सम्मान था, वह घटा है। मैं उन्हें एक गांधीवादी के तौर पर देखता हूं लेकिन वह जिस तरह से हिंसा की बातें कर रहे हैं, उससे उनका सम्मान कम हुआ है। भाजपा नेता शाहनवाज हुसैन ने कहा थप्पड़ के इस्तेमाल की कोई जरूरत नहीं। भ्रष्टाचार के लिए वोट का थप्पड़ ही काफी है। समाजवादी पार्टी के नेता आजम खान ने कहा कि-अन्ना अपने रास्ते से भटक गये हैं। अन्ना थप्पड़ की बात कर रहे हैं ,उनकी टीम के बाकी लोग गोली की बत करेंगे। जब टीम का कमांडर ही हिंसा की बात करेगा तो उसकी टीम इससे बढ़ कर काम करेगी ही।
इस तरह से देखें तो अन्ना ने अपने ताजा बयान ने अपने विरोधियों की संख्या बढ़ा ली है। यह उनके उद्देश्य और आंदोलन दोनों के लिए अच्छा नहीं है। अन्ना राजनेताओं और दलों से बहुत उम्मीद लगाये बैठे थे। उन्होंने जब पैंतरा बदल दिया तो अन्ना को धक्का लगा। उन्होंने कहा कि उन्हें जन लोकपाल के बारे में धोखा दिया गया है। अन्ना को कम से कम नेताओं की पल-पल बदलती मंसा से यह अहसास हो जाना चाहिए था कि उन पर विश्वास नहीं किया जा सकता। अहिंसा से थप्पड़ पर उतरना उनकी निराशा और हताशा को दरसाता है। उनका यह बदलाव सुखद तो नहीं कहा जा सकता।  
 अन्ना को यह समझना चाहिए था कि वे जिस जन लोकपाल की बात कर रहे हैं उसे वे उनसे ही पास कराना चाहते हैं जिससे (अगर यह विधेयक सशक्त रूप में आ गया) कभी-कदा उनकी भी गरदन फंस सकती है। वे भला अपने लिए मुसीबत क्यों खड़ी करने लगे। दरअसल भ्रष्टाचार आज एक आम बात हो गयी। संत्री से लेकर मंत्री तक इसका दायरा फैल चुका है। एक तरह से यह एक दस्तूर बन चुका है जिसे सबने सहजता से स्वीकार लिया है क्योंकि अक्सर हर काम के लिए आज घूस देनी पड़ती है। भ्रष्टाचार से अगर लड़ना है तो इसकी जड़ों पर प्रहार करना पड़ेगा। ऐसा समाज बनाना पड़ेगा जो हर स्तर पर भ्रष्टाचार ले लड़ने का व्रत ले। जहां तक कानून का सवाल है तो आज हमारे पास जो कानून है वही सही ढंग से काम कर पाये तो हर अपराध को समूल नष्ट किया जा सकता है। लेकिन वह सही ढंग से कहां काम कर पाता है। सभी को पता है कि इसमें कई तरफ से कई तरह के दबाव आते हैं। अगर न्यायपालिका स्वतंत्र रूप से काम कर पाये तो भ्रष्टाचार जैसी कई बुराइयों से यह कारगर तरीके से निपट सकती है।
 अन्ना का अपना आंदोलन इस तरह औंधे मुंह गिरेगा किसी को यकीन नहीं था। खुद इस ब्लागर ने इस आंदोलन से जरूरत से ज्यादा उम्मीद बांध रखी थी और इसके पक्ष में तल्ख से तल्ख अंदाज में लिखा लेकिन आंदोलन की जो परिणति हुई उसने बहुत दुख दिया। अन्ना को इस ब्लागर ने बार-बार सलाह दी कि वे अगर संसदीय प्रणाली में बदलाव चाहते हैं, भ्रष्ट तंत्र से निपटना चाहते हैं तो उनकी संसद में हिस्सेदारी आवश्यक है। आप अगर तैरना सीखना चाहते हैं तो आपको पानी में उतरना ही होगा। अन्ना किनारे पर खड़े रह कर ही तैरना सीखना चाहते हैं जो असंभव ही नहीं, नामुमकिन है। उनके आंदोलन में देश साथ दे रहा था, ऐसे में देश भर से ईमानदार और सच्चे लोगों को खोजना मुश्किल नहीं था जो संसद और विधानसभा के चुनावों में उनके दल के उम्मीदवार बनते और संसद व विधानसभाओं में उनकी बड़ी संख्या में भागीदारी होती। अगर ऐसा होता तो किसी भी विधेयक को पास कराने में उन्हें दिक्कत नहीं होती। अगर आपको कोई लड़ाई जीतनी है तो इसके लिए जरूरी है कि आपकी उसमें सक्रिय हिस्सेदारी हो, आप दूर रह कर युद्ध जीत नहीं सकते। अगर व्यवस्था बदलनी है तो आपको उसका हिस्सा बनना पड़ेगा। माना कि राजनीति से नीति गौण हो चली है लेकिन इसकी पुनर्प्रतिष्ठा के लिए अन्ना जैसे ईमानदार और सच्चे लोगों के समानधर्मी समर्थकों का प्रवेश इसमें अत्यावश्यक है। राजनीति को अछूत क्यों मान रहे हैं अन्ना? इसे सुधारना है तो अपनी नीतियों पर चलनेवाले लोगों को वे संसद और विधानसभाओं में लाने से सकुचाते क्यों हैं। अन्ना को अपने आंदोलन का हस्र अपने अनशन के दूसरे दौर में ही पता चल गया होगा जहां लोगों की भीड़ पहले के आंदोलन से पतली हो गयी थी। इससे यह जाहिर होता है कि जनता भी शायद उनके तरीके से ऊब गयी है। वह भी परिणाम चाहती है जो शायद इस तरीके से आना आसान नहीं। अभी भी मौका था पांच राज्यों के चुनावों में अगर अन्ना के समर्थक खड़े होते तो जनता के प्रति उनके रुख का पता चल जाता और संसद व विधानसभाओं में अन्ना के लोगों की पैठ का रास्ता भी खुल जाता।
 अन्ना के समर्थकों से भी यह अपील है कि उनकी तपस्या और शरीर को कष्ट पहुंचा कर एक सशक्त जनांदोलन की हवा को बेकार न जाने दें। यह आंदोलन चलता रहना चाहिए और इसे उसी परिणति तक पहुंचाना चाहिए जहां तक देश और उसकी जनता चाहती है। जब जनता साथ है तो फिर अन्ना को मंत्रियों का मुंह क्या देखना । अगर वे जनतांत्रिक प्रणाली में विश्वास रखते हुए चुनाव को अपना अस्त्र बनायें तो उनकी सफलता अवश्यंभावी है। हां किसी भी दल के खिलाफ चुनाव प्रचार करना उनके उद्देश्य को कामयाब बनाने के बजाय उनके दुश्मनों की संख्या ही बढ़ायेगा जो शायद उनका भी काम्य नहीं है। अन्ना और उनके समर्थकों से यही अपील है कि वक्त की नजाकत को समझें और उसके मुताबिक कदम उठायें। गांधी के देश में हिंसा के पथ पर चलने की सलाह तो कतई न दें, उनका यह दांव उलटा पड़ सकता है। वैसे भी उनके टीम के लोगों के विरुद्ध तरह-तरह से प्रचार किया जा रहा है और उन पर हमले भी हो रहे हैं। यह सही नहीं है। हम अन्ना तो हर हाल में विजयी देखना चाहते हैं और चाहते हैं कि वे इसके लिए अपने सद्प्रयास चतुराई से करें।

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