Sunday, July 7, 2013

प्राकृतिक आपदा पर भी राजनीति?

राजेश त्रिपाठी
पिछले दिनों उत्तराखंड ने जो प्राकृतिक आपदा और त्रासदी झेली, वह हाल के वक्त की सबसे बड़ी विपदा और संकट था। यह कितना प्राकृतिक था और कितना मानव के लोभ, उसकी विकास की अंधी चाह का परिणाम यह बहस का विषय है। हां एक बात दिन के उजाले की तरह साफ है कि इस आपदा के बाद उद्धार और राहत कार्य का भी राजनीतीकरण मानवता के लिए कलंक और एक बदनुमा दाग है। हमारे यहां कहा यह जाता है कि दान वही महान कहलाता है कि दायां हाथ दे तो बायें तक को खबर न हो। लेकिन यहां तो राहत के साथ भी नेताओं के फोटो चस्पां कर यह बताने की भरपूर कोशिश की गयी कि ऐ घर से बेघर हुए सर्वहारा लोगों देखो कौन आका तुम्हारे मुंह में निवाला दे रहा है। परोक्ष में यह संकेत कि इसके प्रति वफादार रहना। वैसे इस बारे में संबंधित दल के नेता के सफाई दी कि किसी उत्साही कार्यकर्ता ने ऐसा किया होगा। तब सवाल यह उठता है कि जिस नेता की फोटो लगायी गयी वह तो ऐसे किसी कार्य के लिए मना कर सकता था। जाहिर है कि इस पर बवाल होना था सो हुआ। जन को लुभाने के लिए तरह-तरह के प्रलोभन और उपहार बांटने का सिलसिला बढ़ रहा है उससे राहत कार्य भी अछूता नहीं रहा। जिस आपदा ने उत्तराखंड के गांव के गांव साफ कर दिये, किसी-किसी गांव में सिर्फ महिलांएं भर रह गयीं हैं मर्द सब सैलाब या भूधसान में मारे गये उन्हें सड़ा हुआ बदबूदार राशन राहत के रूप में दिया जा रहा है। ऐसे राशन को खाकर मरने के बजाय लोगों ने उसे लेने से इनकार कर दिया। उत्तराखंडके मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा को एक निजी टीवी चैनल पर कहते सुना गया कि जो सड़ा हुआ राशन है वह सरकारी नहीं निजी संस्थाओं का है। अब इसके सच-झूठ की भी परीक्षा होनी चाहिए। हां ऐसा जरूर हुआ है कि कई राजनीतिक दलों ने राहत सामग्री के जरिये अपने नेताओं और दल का जम कर प्रचार करने की कोशिश की। दुख और मुसीबत की इस घड़ी को भी भुनाने में वे चूके नहीं।
    जब सारे दलों को एक साथ मिल कर राहत कार्य करने पर सारा ध्यान केंद्रित करना चाहिए था उस समय सत्ता पक्ष और विपक्ष के नेता आरोप-प्रत्यारोपों की नूरा कुश्ती लड़ रहे थे। कोई राहत कार्य करने का बढ़-चढ़ कर दावा कर रहा था तो कोई उसके दावे की खिल्ली उड़ा रहा था। ये नेता प्राकृतिक आपदा से राजनीतिक माइलेज हासिल करने की कोशिश में उधर हजारों लोग राहत के इंतजार में कई दिनों से खुले आसमान के नीचे बारिश और ठंड की मार झेल रहे थे। होना तो यह चाहिए था कि सारी बातों को पीछे छोड़ पहले लोगों को बचाने, बसाने (स्थानीय लोगों को) और खिलाने की ओर पूरा ध्यान होता लेकिन राजनीति के चलते यह काम ढीला पड़ गया। हाल यह था कि लापता या ापदा में घिरे लोगों के परिजन अपने लोगों की खोज-खबर के लिए दर-दर भटक रहे थे और राजनीति अपना काम कर रही थी। कहना नहीं होगा ऐसे में ज्यादातर लोगों ने सेना को धन्यवाद दिया और राजनेताओं को जम कर कोसा। राहत सामग्री से भरे ट्रक देहरादून में खड़े रहे उधर केदारनाथ व अन्य जगहों पर अटके लोग पांच रुपये का बिस्कुट पैकेट हजार रुपये में खरीद जान बचाने की कोशिश करते रहे।
    सरकार की ओर से कहा यह जा रहा है कि उद्धार कार्य प्रायः समाप्त हो गया है लेकिन अब तक अनेक लोग लापता हैं। मरनेवालों का आंकड़ा भी हजारों में ही होगा। कहा यह जा रहा है कि 15 जुलाई तक जो लोग नहीं मिल पायेंगे उन्हें मरा हुआ मान लिया जायेगा। ऐसे में संभव है कि आपदा में जान गंवाने वालों की संख्या 10 हजार के भी पार हो जाये। सरकार के अपने दावे हैं जिलके घर के लोग नहीं लौटे उनकी अपनी करुण पुकार है। सच कहें तो सरकारी सूचना तंत्र से कहीं ज्यादा मदद कुछ निजी टीवी चैनलों ने की है। इन चैनलों ने अपनी हेल्प लाइन के जरिये उन परिवारों की भरपूर मदद करने की कोशिश की जिन्होंने इस त्रासदी में अपनो को खोया या उनकी खोज-खबर के लिए बेचैन रहे। उनके सगे-संबंधियों की तसवीरें और नाम अपने चैनल में प्रसारित कर उन्होंने इन दुखी लोगों को अपनी बात पहुंचाने का एक मंच दिया। इन लोगों की शिकायत थी कि इस तरह की मदद उन्हें किसी सरकारी तंत्र से कम ही मिल पायी। अगर सेना के हाथों उद्धार कार्य नहीं सौंपा गया होता तो संभव है जितने लोग बचाये गये वे भी न बच पाते। जिनके परिजन फंसे थे उन लोगो की शिकायत है कि राहत कार्य अगर थोड़ा पहले शुरू कर दिये जाते तो शायद लोगों को काफ सहूलियत होती। इस बारे में सरकारी अधिकारियों की सफाई है कि राहत कार्य के लिए मौसम का अनुकूल होना जरूरी था। मौसम अनुकूल होते ही हेलीकाप्टरों को राहत और बचाव कार्य में लगा दिया गया।
    कहा यह जा रहा है कि अगर राज्य सरकार के विभागों ने मौसम विभाग की चेतावनी को गंभीरता से लिया होता, तो इतनी बड़ी धन-जन हानि को टाला जा सकता था। केंद्रीय मौसम विभाग का  दावा है कि उसने 14-15जून को ही यह चेतावनी दे दी थी कि उत्तराखंड में 16 जून से कई दिन भारी बारिश, भूस्खलन की आशंका है। अब राज्य सरकार के विभागों का कहना है कि इस तरह की चेतावनी तो मौसम विभाग अक्सर देता रहता है, उसने कहीं यह नहीं कहा था कि बादल फटेगा। ये तर्क अब फूहड़ और बेमानी लगते हैंष सामान्य सूचना ही सही अगर इसे लेकर सतर्कता बरती गयी होती तो यात्रा को बीच में रोक कर लोगों सुरक्षित जगह ले जाने का वक्त तो मिल ही जाता। लोगों को केदारनाथ नहीं जाने दिया जाता जहां सबसे अधिक विनाश हुआ।
    आज नहीं तो कल इस बात को सामने आना है कि किसकी लापरवाही और असावधानी के चलते धन-जन की इतनी हानि हुई । उत्तराखंड के जिन क्षेत्रों में भारी विनाश हुआ है उनकी जीविका ही चारधाम की यात्रा पर आने वाले यात्रियों के हुई कमाई से चलती है। इसमें प्रसाद, फूलमाला व अन्य सामग्रियों के दुकानदारों से लेकर खच्चड़., टट्टू चलाने वाले लोग भी शामिल हैं। इनमें से कई तो न जाने कहां बह गये जो बचे हैं उन्हें जिंदगी की बिखरी कड़ियों को समेटने , संवारने में वर्षों लग जायेंगे।  वे कभी उस स्थिति को नही प्राप्त क र पायेंगे जिसमें वे सुख से जी रहे थे। जिस तरह की त्रासदी लोगों ने झेली है जाहिर है उससे इन दुर्गम यात्राओं के प्रति लोगों की आस्था और आकर्षण में भी कमी आयेगी। आपदा में फंसे कई यात्रियों को बिलखते हुए यह कहते सुना गया कि वे अब भूलकर भी इन यात्राओं की ओर रुख नहीं करेंगे। ऐसे में तीर्थयात्रियों की संख्या में आनेवाले वर्षों में भारी कमी होने की आशंका है। इसकी सीधी मार वहां के स्थानीय निवासियों की रोजी-रोटी पर पड़ेंगी।
    पहले तो यह देखना है कि वहां पुनर्निर्माण में कितना वक्त लगता है। वहां की सैकड़ों किलोमीटर सड़कें बह गयी हैं ऐसे में वहां आवागमन के मार्ग अवरुद्ध हैं उन्हें युद्धस्तर पर बनाने की जरूरत है। लेकिन इसके लिए भी सरकारी तंत्र की सजगता और तत्परता आवश्यक है। देखना यह है कि सरकार इस काम को कितनी प्राथमिकता देती है क्योंकि जब तक संचार मार्ग नहीं खुलेंगे सही मायनों में राहत भी जरूरतमंदों तक नहीं पहुंच पायेगी।
    यह आपदा जितनी प्राकृतिक नहीं उतनी विकास की अंधी दौड़ और लालच का परिणाम है। लोगों ने विकास के नाम पर पहाड़ों के वृक्ष काट डाले, उन्हें नंगा कर दिया। वृक्ष की जड़ें मिट्टी को पकड़ कर रखती थीं जिससे भूकटान या भूस्खलन का भय कम रहता था। नंगे पहाड़ों की ढीली मिट्टी बारिश से पिघल कर भूस्खलन को जन्म देती है। लोगों ने नदियों के तटों तक में बहुमंजिली इमारतें खड़ी कर दीं जो इस बार सैलाब में ताश के महलों की तरह पानी में समाती देखी गयीं। पहाड़ खोखले कर दिये गये, नदियों के साथ बेहद छेड़छाड़ की गयी। उनमें जगह-जगह बांध बांधे गये। इस सबसे कहीं-कहीं तो उन्होंने अपने पथ बदल डाले और कई रिहाइशी हिस्सों को अपने साथ बहाती चली गयीं। पर्यावरण और पारि्स्थितिकी से इस अंधाधुंद छेड़छाड़ को बंद करना होगा। शायद यही वजह है कि मुख्यमंत्री तक ने इस बार एलान किया है कि अब से उत्तराखंड में जो भी निर्माण कार्य होंगे वे बाकायदे नियम से और स्थानीय परिवेश व प्रकृति से सामंजस्य रख कर ही किये जायेंगे।
    जो भी हो इस आपदा ने कई स्वार्थी चेहरों को बेनकाब भी किया है जो इस तरह की दुखद घटनाओ को भी राजनीतिक ढंग से भुनाने की घिनौनी कोशिश करते हैं। इस बार कई दलों के नेताओं में जहां आपदाग्रस्त क्षेत्र की यात्रा को लेकर वाक्युद्ध छिड़ा रहा वहीं कई राहत कार्य को लेकर अपने मुंह मिया मिट्ठू बनने की कोशिश करते रहे। एक ही दल के नेताओं के दो गुटों पर देहरादून हवाई अड्डे में इस बात को लेकर हाथापाई हो गयी कि अपने राज्य के बचाये गये लोगों को कौन अपने चार्टर्ड प्लेन में ले जायेगा। पहले नेता ने प्लेन भाडा किया तो उसी के दल के दूसरे गुट ने भी प्लेन भाड़ा कर लिया। दोनों के बीच इस बात को लेकर खींचतान और हाथापाई हो गयी कि अपने राज्य के लोगों को कौन ले जायेगा। इसके पीछे निश्चित है कि राजनीतिक लाभ की भूख थी। हर नेता चाहता था कि वह अपने को सच्चे जनहितैषी के रूप में पेश कर सके। अगर ऐसा न होता तो फिर एक  ही दल के दो नेताओं में मत पार्थक्य कैसा? इस तरह की घिनैनी हरकतें ही इन नेताओं को बेनाकब कर देती हैं और यह साफ हो जाता है कि राहत तो एक दिखावा है इनका मकसद वोटरों को रिझाना है। किसी भी आदमी की कीमत इनके लिए सिर्फ और सिर्फ एक वोट से अधिक कुछ नहीं है। देश की जनता को समझना होगा कि क्या इस देश में उसकी हैसियत सिर्फ और सिर्फ एक वोट के रूप में है या यह देश उतना ही उसका भी है जितना किसी नेता या उसके पिछलग्गू का।

No comments:

Post a Comment