Monday, May 18, 2015

एक सामयिक गजल

अब वक्त सभी से मांगता इसका तुरत जवाब
राजेश त्रिपाठी
जाने  कितने  बलिदान  दिये, तब पायी आजादी।
दिल  रोता है आज  लख, मुल्क  की ये बरबादी।।
कोई  दाने-दाने  को  मोहताज है, कोई  चाभे माल।
कोई पैसों से है खेलता,  कोई कौड़ी-कौड़ी को बेहाल।।
किसी-किसी   के  घर  में कुत्ते  तक ठंड़े घर में रहते।
कहीं  गरीब   रोटी की   खातिर, तपती धूप में जलते।।
कभी  गांव   के  गगन ने महाजन से था लिया उधार।
कुछ सौ  का कर्ज चुकाने, बंधुआ हो गया सब परिवार।।
सूखा   कहीं कहीं पर ओले, लिख रहे गांवों की तकदीर।
मर गये जाने कितने हलधर, सही गयी ना उनसे पीर।।
मालदार  हैं  मस्त  वहां, घुट-घुट  जीता  जहां गरीब।
गम को खाता,आंसू पीता, उसका बन गया  यही नसीब।।
दिल्ली के जो आका हैं, जाने कितने सब्जबाग दिखलाते।
लेकिन ये  हैं सिर्फ  खयाली, गांवों तक कब ये हैं आते।।
जो भी   राहत चली  वहां से,  भरते उससे जेब दलाल।
इसीलिए  गांव-गरीब  का अब तक सुधरा नहीं है हाल।।
भूखी  जनता  जाने  कब से, करती है बस यही सवाल।
उसका  सुख कहां  है  गिरवीं, कोई  तो  बदले ये हाल।।
जाने  कितने   बदल चुके   हैं अब तक यहां निजाम।
गांवों के  मुफलिस-मजलूमों का नहीं बना कुछ काम।।
अब  तक वहां बहुत से बंदे हैं रोजी-रोटी को मोहताज।
उन्हें  समझ आता  नहीं, ऐसा क्यों हो गया समाज।।
भोला  कहता  बिटिया  हुई सयानी, कृपा करो हे नाथ।
दूल्हा लाखों में  बिकता, उसके  कैसे पीले होवैं हाथ।।
श्रीमंतों  के   आवारा   छोरे, उसको नजरों से नापें।
अनजाने  भय से भोला  का  जियरा निशिदिन कांपे।।
चाहे  जितनी बनें स्कीमें, करोड़ों का हो जाये निवेश।
लगता  है  इससे गांवों का नहीं मिटेगा कभी क्लेश।।
गांधी  के  सपनों का भारत,  क्यों जी रहा उदास है।
गांव अभी तक पड़े उपेक्षित,  ठिठका कहां विकास है।।
क्यों  टूटे  कांच  से,  अमर शहीदों के जो थे ख्वाब।
अब  वक्त   सभी से  मांगता,  इसका तुरत  जवाब।।


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